भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हिंदू धर्म में सबसे पवित्र और दिव्य मिलन माना जाता है। शिव पार्वती विवाह की कथा न केवल भक्तों को प्रेरित करती है, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के संतुलन का प्रतीक भी है। माता पार्वती ने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया था। Shiv Parvati Vivah की कथा हमें सच्ची भक्ति, प्रेम और समर्पण का अद्भुत संदेश देती है।
शिव पार्वती विवाह कथा
महाशिवरात्रि भगवान शिव की आराधना का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है, जो फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस पर्व को लेकर मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था, इसलिए इस दिन उनकी पूजा करने से सुखद दांपत्य जीवन का आशीर्वाद मिलता है। इस शुभ अवसर महाशिवरात्रि शिव पार्वती विवाह की संपूर्ण कथा पढ़ने से शिव-पार्वती की कृपा प्राप्त होती है और वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है।
कन्यादान की शुरुआत
ब्रह्माजी ने नारद मुनि से कहा— “हे नारद! पर्वतराज हिमाचल ने अपनी पत्नी मेना के साथ मिलकर कन्यादान का कार्य आरंभ किया।” इस शुभ घड़ी में माता मेना स्वर्ण कलश लिए अपने पति हिमालय के दाहिने भाग में विराजमान हुईं। उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती को सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से विभूषित किया और विवाह के लिए तैयार किया।
भगवान शिव का पूजन
इसके बाद पुरोहितों के साथ हर्षित पर्वतराज हिमालय ने विधिवत रूप से भगवान शिव का पाद्य और अन्य पूजन सामग्री से पूजन किया। फिर उन्होंने वस्त्र, चंदन और आभूषणों द्वारा भगवान शिव का वरण किया।
वैवाहिक मंत्रों का उच्चारण
हिमालय ने ब्राह्मणों से कहा— “अब विवाह की तिथि और संकल्प वचन का उच्चारण करें, क्योंकि शुभ मुहूर्त आ गया है।” ब्राह्मणों ने इस पर प्रसन्न होकर तथास्तु कहा और विवाह की विधि प्रारंभ कर दी।
शिवजी का उत्तर
विवाह संस्कार की प्रक्रिया के दौरान, पर्वतराज हिमालय ने भगवान शिव से कहा— “हे शम्भो! कृपया अपने गोत्र, कुल, नाम, वेद और शाखा का विवरण दें। अब अधिक समय न गंवाएं।” भगवान शिव मुस्कुराए और उनकी बातों का उत्तर देने के लिए आगे बढ़े। इस प्रकार शिव-पार्वती विवाह की शुभ घड़ी प्रारंभ हुई और पूरे ब्रह्मांड में हर्षोल्लास का माहौल छा गया।
भगवान शिव का मौन
पर्वतराज हिमाचल के प्रश्न को सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराते हुए भी गंभीर हो गए। वे अशोचनीय होकर भी तत्काल शोचनीय अवस्था में चले गए। उस समय देवताओं, मुनियों, गंधर्वों, यक्षों और सिद्धों ने देखा कि भगवान शिव मौन थे और उनके मुख से कोई उत्तर नहीं निकल रहा था।
नारद मुनि का हास्य
यह देखकर नारद मुनि हंस पड़े और भगवान महेश्वर का स्मरण करते हुए पर्वतराज हिमालय से बोले— “पर्वतराज! तुम मूढ़ता के वशीभूत होकर कुछ भी नहीं जानते। तुम्हें यह भी ज्ञान नहीं कि महेश्वर से क्या कहना चाहिए और क्या नहीं। तुमने साक्षात् भगवान हर से उनका गोत्र पूछ लिया और उत्तर देने के लिए उन्हें प्रेरित कर दिया। यह अत्यंत उपहासजनक बात है।”
भगवान शिव का स्वरूप
नारद जी आगे बोले— “पर्वतराज! भगवान शिव के गोत्र, कुल और नाम को स्वयं ब्रह्मा और विष्णु भी नहीं जानते, तो फिर किसी और की क्या बात करें? जिनके एक दिन में करोड़ों ब्रह्माओं का लय हो जाता है, उन्हीं भगवान शंकर को तुमने माता पार्वती के तपोबल से प्रत्यक्ष देखा है।
ये भगवान शिव न तो किसी कुल से बंधे हैं, न ही किसी गोत्र से। ये प्रकृति से परे, निर्गुण, परब्रह्म परमात्मा हैं। ये निराकार, निर्विकार और मायाधीश हैं, लेकिन अपने भक्तों के प्रति अत्यंत दयालु भी हैं। भक्तों की इच्छा से ही ये निर्गुण से सगुण हो जाते हैं, निराकार होकर भी सुंदर स्वरूप धारण कर लेते हैं, और अनामा होकर भी असंख्य नामों से जाने जाते हैं। ये गोत्रहीन होते हुए भी उत्तम गोत्र वाले हैं, कुलहीन होते हुए भी परम कुलीन हैं।”
शिव की लीला
“हे गिरिश्रेष्ठ! भगवान शिव ने अपनी माया से पूरे चराचर जगत को मोहित कर रखा है। कोई कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह उन्हें संपूर्ण रूप से नहीं जान सकता।”
ब्रह्माजी ने कहा— “हे मुने! ऐसा कहकर नारद मुनि ने शैलराज हिमालय को अपनी वाणी से प्रसन्न किया और फिर आगे कहा”- नाद ही शिव है!
नारद मुनि बोले— “हे महाशैल! मेरी बात सुनो और उसे समझकर अपनी पुत्री पार्वती को भगवान शंकर के हाथ में सौंप दो। शिव का गोत्र और कुल केवल ‘नाद’ है— यह सत्य है। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है। इन दोनों में कोई अंतर नहीं है।”
“सृष्टि के प्रारंभ में जब भगवान शिव ने लीला के लिए सगुण रूप धारण किया, तब सबसे पहले ‘नाद’ प्रकट हुआ। इसलिए नाद ही सर्वोत्तम है। हे पर्वतराज! यही कारण है कि मैंने अभी वीणा बजानी शुरू कर दी थी, क्योंकि यह शिव की इच्छा से प्रेरित था।”
गिरिराज हिमालय का संतोष
ब्रह्माजी बोले— “हे मुने! तुम्हारी यह बात सुनकर गिरिराज हिमालय का संदेह दूर हो गया और उनके मन का सारा विस्मय समाप्त हो गया। इसके बाद श्री विष्णु, अन्य देवता और मुनि सभी नारद मुनि को साधुवाद देने लगे।
भगवान महेश्वर की गम्भीरता को जानकर समस्त विद्वान आश्चर्यचकित हो गए और प्रसन्नतापूर्वक परस्पर कहने लगे— ‘अहो! जिनकी आज्ञा से इस विशाल जगत की उत्पत्ति हुई है, जो परात्पर, आत्मबोधस्वरूप, स्वतन्त्र लीला करने वाले और केवल उत्तम भाव से ही जानने योग्य हैं, उन त्रिलोकनाथ भगवान शंकर का हमने आज साक्षात दर्शन कर लिया!’
हिमालय द्वारा कन्यादान
इसके बाद हिमालय ने विधि के अनुसार प्रेरित होकर भगवान शिव को अपनी पुत्री सौंपने का संकल्प लिया। कन्यादान करते समय उन्होंने कहा— “हे परमेश्वर! मैं अपनी यह कन्या आपको समर्पित करता हूँ। कृपया इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें। हे सर्वेश्वर! इस कन्यादान से आप संतुष्ट हों।”
इसके बाद हिमालय ने अपनी पुत्री, त्रिलोकजननी पार्वती, को भगवान रुद्र के हाथों में सौंप दिया। इस प्रकार शिवा का हाथ शिव के हाथ में रखकर पर्वतराज हिमालय मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्न हुए। वे अपने मनोरथ के महासागर को पार कर चुके थे।
शिव द्वारा विवाह संस्कार
भगवान महादेवजी ने प्रसन्न होकर वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुए गिरिजा का हाथ शीघ्रता से अपने हाथ में ले लिया। लोकाचार का पालन करते हुए भगवान शंकर ने पृथ्वी का स्पर्श किया और ‘कोऽदात्’ मंत्र का पाठ किया। इस पवित्र क्षण में चारों ओर महान उत्सव होने लगा। पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग में जय-जयकार गूंजने लगी।
- गंधर्व प्रेमपूर्वक गाने लगे।
- अप्सराएं नृत्य करने लगीं।
- हिमालय के नगर के लोग आनंद से भर उठे।
- संपूर्ण देवगण, विष्णु, इंद्र, और मुनि प्रसन्न हो गए।
- हर किसी के मुखारविंद प्रसन्नता से खिल उठे।
शिव के लिए भव्य दहेज
इसके बाद शैलराज हिमालय ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ शिव के लिए कन्यादान की स्वीकृति दी। तत्पश्चात परिवारजनों ने भक्तिपूर्वक शिव का पूजन किया और विभिन्न विधियों से उन्हें उत्तम द्रव्य समर्पित किए।
हिमालय ने दहेज में दिया—
- असंख्य बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण।
- एक लाख सुसज्जित गायें।
- एक लाख सुंदर सजे हुए घोड़े।
- करोड़ों हाथी।
- असंख्य सोने से जड़े रथ।
इस प्रकार भगवान शिव को विधिपूर्वक अपनी पुत्री कल्याणमयी पार्वती का दान करके पर्वतराज हिमालय कृतार्थ हो गए।
शिव-पार्वती का अभिषेक और महोत्सव
इसके बाद, शैलराज हिमालय ने वेदों के माध्यंदिनीय शाखा के स्तोत्र से भगवान शिव की स्तुति की। फिर हिमालय की आज्ञा पर सभी मुनियों ने बड़े उत्साह के साथ देवी पार्वती का अभिषेक किया और महादेवजी का नाम लेकर इस विधि को पूर्ण किया। इस समय चारों ओर उल्लास और आनंद का माहौल था। समस्त लोकों में दिव्य महोत्सव मनाया जा रहा था।
शिव विवाह का उपसंहार
ब्रह्माजी बोले— “हे नारद! इसके बाद मेरी आज्ञा से भगवान महेश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा अग्नि की स्थापना करवाई। पार्वती को अपने आगे बिठाकर उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मंत्रों के साथ अग्नि में आहुतियां अर्पित की।”
इस शुभ अवसर पर पार्वती के भाई मैनाक ने लावा की अंजलि समर्पित की। फिर भगवान शिव और माता पार्वती ने अग्निदेव की आहुति देकर परिक्रमा की और लोकाचार का पालन करते हुए प्रसन्नता व्यक्त की।
शिव-पार्वती का अभिषेक और मंगल अनुष्ठान
इसके बाद भगवान शिव की आज्ञा से सभी मुनियों ने विवाह की अंतिम विधियां पूरी कीं। फिर दोनों दंपति के मस्तक पर अभिषेक हुआ और ब्राह्मणों ने उन्हें ध्रुव का दर्शन कराया।
इसके पश्चात—
- हृदयालंभन संस्कार सम्पन्न हुआ।
- स्वस्तिवाचन किया गया।
- भगवान शिव ने माता पार्वती के मस्तक पर सिंदूरदान किया।
उस समय गिरिराज नंदिनी उमा की शोभा अद्भुत और अवर्णनीय हो गई। फिर, ब्राह्मणों के आदेश से शिव-पार्वती एक आसन पर विराजमान हुए और भक्तों को परम आनंद देने लगे।
शिव का यज्ञ संपन्न करना और दान
ब्रह्माजी बोले— “इसके बाद, शिव-पार्वती ने मेरी आज्ञा पाकर विधिपूर्वक अन्न ग्रहण किया।” जब विवाह यज्ञ सम्पन्न हो गया, तब भगवान शिव ने ब्रह्मा को पूर्ण पात्र का दान किया और आचार्य को गोदान प्रदान किया।
इसके अतिरिक्त—
- भगवान शंकर ने बड़े मंगलकारी दान किए।
- असंख्य ब्राह्मणों को सौ-सौ सुवर्ण मुद्राएं दीं।
- करोड़ों रत्नों और बहुमूल्य द्रव्यों का दान किया।
इस पावन अवसर पर संपूर्ण देवता, मुनि और चराचर जीव आनंद से भर उठे।
चारों ओर—
- जय-जयकार की ध्वनि गूंज उठी।
- मंगलिक गीत गाए जाने लगे।
- वाद्यों की मधुर ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी।
शिव का जनवासे में लौटना
विवाह की रस्मों के पश्चात— श्री विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवता और ऋषि हिमालय से आज्ञा लेकर अपने-अपने स्थान को लौट गए। हिमालय नगर की स्त्रियों ने प्रसन्नतापूर्वक शिव-पार्वती को कोहबर गृह में ले जाया।
वहां उन्होंने—
- आदरपूर्वक सभी लोकाचार पूरे कराए।
- परमानंददायक उत्सव का आयोजन किया।
- शिव-पार्वती को परम दिव्य वास भवन में ले जाकर मंगल कार्य संपन्न किए।
इसके बाद नगर की स्त्रियों ने मंगल गीत गाते हुए नवदंपति को केलि गृह (विवाह उपरांत विश्राम कक्ष) में पहुंचाया। उन्होंने—
- जयध्वनि करते हुए गठबंधन की गांठ खोली।
- शुभ रस्मों को संपन्न किया।
इस प्रकार शिव-पार्वती विवाह के समस्त अनुष्ठान पूर्ण हुए और सम्पूर्ण ब्रह्मांड इस पावन विवाह का साक्षी बना।
कामदेव का पुनर्जन्म और रति का उद्धार
शिव-पार्वती के विवाह उपरांत, सोलह दिव्य देवांगनाएँ एवं अन्य दिव्य स्त्रियाँ नवदम्पति के दर्शन हेतु वहाँ उपस्थित हुईं। इनमें सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, शतरूपा, संज्ञा एवं रति प्रमुख थीं। इनके साथ अनेक देवकन्याएँ, नागकन्याएँ और मुनिकन्याएँ भी वहाँ आईं।
भगवान शिव रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हुए और देवियाँ विनोदपूर्ण वार्तालाप करने लगीं। तत्पश्चात, शिव-पार्वती ने मधुर भोजन किया एवं आचमन करके कपूर मिश्रित पान ग्रहण किया।
रति का विलाप और करुणा याचना
इस शुभ अवसर पर, रति ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए भगवान शिव से विनम्रतापूर्वक निवेदन किया— “हे भगवन्! आपने पार्वती जी से विवाह करके महान सौभाग्य प्राप्त किया है, किंतु मेरे प्राणनाथ (कामदेव) को क्यों भस्म कर दिया? कृपा करके उन्हें पुनर्जीवित करें।”
रति ने दीनभाव से आगे कहा— “महादेव! आपके विवाहोत्सव में सभी सुखी हैं, किंतु मैं अपने पति के बिना दुःखमग्न हूँ। आप समस्त प्राणियों के संकटहारी हैं, अतः मुझ पर भी दया कीजिए। मेरे पति की पुनः प्राप्ति के बिना आपका यह मंगलमय उत्सव भी अधूरा रहेगा। प्रभु! कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।”
इतना कहकर रति ने अपने पास बंधे हुए कामदेव के भस्म को शिवजी के समक्ष अर्पित कर दिया और ‘हे नाथ! हे नाथ!’ कहकर विलाप करने लगी।
देवियों की प्रार्थना और शिव की कृपा
रति का हृदयविदारक विलाप सुनकर सभी देवियाँ, जैसे सरस्वती, लक्ष्मी आदि भी करुणा से द्रवित हो गईं। उन्होंने भी भगवान शिव से करुणामयी वाणी में प्रार्थना की— “हे प्रभु! आप भक्तवत्सल एवं दीनबन्धु हैं। कृपा करके रति को उसके पति का जीवनदान दीजिए।”
ब्रह्माजी बोले— “हे नारद! सभी की प्रार्थना सुनकर भगवान महेश्वर प्रसन्न हुए और उन्होंने दयासागर बनकर रति पर कृपा की।” जैसे ही भगवान शिव की अमृतमयी दृष्टि उस भस्म पर पड़ी, उसी क्षण उसमें से पूर्ववत रूप, वेश, मंद मुस्कान और धनुष-बाण सहित दिव्य कामदेव प्रकट हो गए।
रति ने अपने पति को पुनः जीवित देखकर हर्ष से विह्वल होकर भगवान शिव को नमन किया। अपने पुनर्जीवित पति के साथ वह महेश्वर का स्तवन करने लगी। भगवान शिव ने रति-काम की स्तुति से प्रसन्न होकर सौम्य वाणी में उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया।
कामदेव को शिव का आशीर्वाद एवं शिव का जनवासे में लौटना
भगवान शंकर ने कामदेव और रति की स्तुति से प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहा।
शिव बोले— “हे मनोभव! तुमने अपनी पत्नी सहित जो स्तुति की है, उससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। इसलिए तुम मुझसे मनचाहा वर मांगो। मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा।”
कामदेव की विनम्र प्रार्थना
भगवान शिव के वचन सुनकर कामदेव आनंद से अभिभूत हो गए और उन्होंने करुणा-सागर शिव से प्रार्थना की— “हे देवाधिदेव महादेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपा करके मेरे प्रति आनंदमयी हो जाइए। जो अपराध मैंने पूर्वकाल में किया था, उसे क्षमा कीजिए। साथ ही, मुझे अपने चरणों की भक्ति एवं स्वजनों के प्रति प्रेम का वरदान दीजिए।”
शिव का वरदान एवं कामदेव की मुक्ति
भगवान शंकर कामदेव की प्रार्थना से संतुष्ट हुए और हंसकर बोले— “महामते कामदेव! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। अपने मन से भय को निकाल दो। अब तुम भगवान विष्णु के पास जाओ और इस भवन से बाहर ही रहो।”
इसके पश्चात कामदेव ने शिव को प्रणाम किया और बाहर आ गए। भगवान विष्णु तथा अन्य देवताओं ने भी कामदेव को आशीर्वाद दिया।
शिव का पार्वती संग मधुर क्षण एवं जनवासे में आगमन
इसके बाद, भगवान शंकर ने वधू गृह में पार्वती को अपने बाईं ओर बिठाया और उन्हें मिष्टान्न भोजन कराया। पार्वती जी ने भी प्रसन्नता से भगवान शिव को मिष्टान्न ग्रहण करवाया। तत्पश्चात, शिव-पार्वती ने विवाहोत्तर आवश्यक कृत्य पूर्ण किए और मेना एवं हिमवान से आज्ञा लेकर जनवासे के लिए प्रस्थान किया।
महान उत्सव एवं वेदमंत्रों की गूंज
शिव के जनवासे में लौटने के समय चारों दिशाओं में वेदमंत्रों की ध्वनि गूंजने लगी। शंख, मृदंग, ढोल, नगाड़े एवं अन्य वाद्ययंत्रों की मंगलमयी ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण गुंजायमान हो उठा। देवता, ऋषि-मुनि, सिद्धगण एवं समस्त जीव शिव का जय-जयकार करने लगे।
जनवासे में पहुंचकर भगवान शंकर ने ऋषि-मुनियों को प्रणाम किया, श्रीहरि एवं ब्रह्मा को मस्तक झुकाया। तत्पश्चात, समस्त देवताओं, इंद्र, ऋषियों एवं सिद्धों ने भगवान शंकर की वंदना की और ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव का नारा लगाते हुए उनके दिव्य गुणों का स्तुति किया।
इस प्रकार भगवान शिव के विवाह का मंगलमय समापन हुआ, जिससे समस्त लोक आनंदित हो उठे।
भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि प्रेम, तपस्या और भक्ति का अद्भुत उदाहरण है। इस कथा से हमें सिखने को मिलता है कि सच्चे प्रेम के लिए धैर्य और समर्पण आवश्यक है। यदि आप भगवान शिव की भक्ति में लीन रहना चाहते हैं, तो शिव चालीसा, शिव तांडव स्तोत्र एवं महामृत्युंजय मंत्र का नियमित पाठ करें।
FAQ
भगवान शिव और माता पार्वती का सबसे खास मंत्र कौन सा है?
भगवान शिव और माता पार्वती का सबसे खास मंत्र ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव है।
शिव-पार्वती विवाह का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
यह विवाह संतुलन, प्रेम, भक्ति और तपस्या का प्रतीक है।
क्या शिव-पार्वती विवाह से संबंधित कोई विशेष मंत्र है?
हां, “ऊं नमः शिवाय” और “शिव पार्वती विवाह मंत्र” का जाप अत्यंत शुभ माना जाता है।
माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कितने वर्षों तक तपस्या की?
माता पार्वती ने हजारों वर्षों तक कठिन तपस्या की थी।
भगवान शिव की बारात में कौन-कौन शामिल थे?
भगवान शिव की बारात में भूत-प्रेत, योगी, नाग, गण, देवता और ऋषि-मुनि शामिल थे।
मैं आचार्य सिद्ध लक्ष्मी, सनातन धर्म की साधिका और देवी भक्त हूँ। मेरा उद्देश्य भक्तों को धनवंतरी, माँ चंद्रघंटा और शीतला माता जैसी दिव्य शक्तियों की कृपा से परिचित कराना है।मैं अपने लेखों के माध्यम से मंत्र, स्तोत्र, आरती, पूजन विधि और धार्मिक रहस्यों को सरल भाषा में प्रस्तुत करती हूँ, ताकि हर श्रद्धालु अपने जीवन में देवी-देवताओं की कृपा को अनुभव कर सके। यदि आप भक्ति, आस्था और आत्मशुद्धि के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो मेरे लेख आपके लिए एक दिव्य प्रकाश बन सकते हैं। View Profile 🚩 जय माँ 🚩