शनि व्रत कथा: शनिदेव की कृपा पाने वाली सच्ची पौराणिक कथा

शनि देव, जो सूर्य देव और छाया देवी के पुत्र हैं, जिनका ग्रह कई लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाल सकता है, इसलिए उनके शनि व्रत कथा और पूजा का महत्व भी बहुत अधिक है। शनि देव की कथा पुराणों में वर्णित है, जो उनकी कृपा और उनके क्रोध दोनों को समझाती है। Shani Vrat Katha को पढ़कर या सुनकर, भक्त अपने जीवन में शनि के प्रभाव से मुक्ति पाने की आशा रखते हैं। यहां हमने इस कथा को उपलब्ध कराया है-

Shani Vrat Katha

विक्रमादित्य और शनि देव का अद्भुत संवाद

एक समय स्वर्गलोक में देवताओं और ग्रहों के बीच यह विवाद छिड़ गया था कि “हममें से सबसे बड़ा कौन है?” इस प्रश्न पर देवताओं के बीच भयंकर वाद-विवाद होने लगा, और विवाद इतना बढ़ा कि युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और उनका मार्गदर्शन मांगा।

देवराज इंद्र ने कहा, “मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। क्यों न हम सभी पृथ्वी पर चलकर उज्जयिनी नगरी के राजा विक्रमादित्य से पूछें?”

इंद्र और अन्य देवताओं का उज्जयिनी नगरी में आगमन

इंद्र और अन्य देवता उज्जयिनी नगरी पहुँचे। वहां राजा विक्रमादित्य ने उनकी बात सुनी और स्थिति को संभालने के लिए सोचा। राजा विक्रमादित्य ने एक अनोखा उपाय निकाला। उन्होंने स्वर्ण, रजत, कांसा, ताम्र, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहे से नौ आसन तैयार किए और ग्रहों को इन पर बैठने के लिए कहा। प्रत्येक ग्रह को उसके अनुसार धातु पर बैठने को कहा गया।

राजा ने कहा, “जो सबसे पहले आसन पर बैठता है, वही सबसे बड़ा है।” अब सभी ग्रह अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। जब शनि देव ने सबसे पीछे बैठे आसन को देखा, तो वे क्रोधित हो गए और राजा विक्रमादित्य को चुनौती दी।

शनि देव का क्रोध और धमकी

शनि देव ने गुस्से में आकर कहा, राजा विक्रमादित्य! आपने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। क्या आप मेरी शक्तियों को नहीं समझते? मैं तुम्हारे सर्वनाश का कारण बन सकता हूँ।

शनि देव ने कहा, “सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूँ। मेरे प्रकोप से बड़े-बड़े देवता भी दुखी हो चुके हैं। राम ने मेरी साढ़े साती के कारण वनवास झेला और रावण को मेरी साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का सामना करना पड़ा। अब तुम भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकोगे।

राजा विक्रमादित्य ने शनि देव के क्रोध को शांत करने की कोशिश की, लेकिन शनि देव उनके शब्दों को नजरअंदाज करते हुए वहां से क्रोधित होकर चले गए।

राजा विक्रमादित्य का संघर्ष और शनि देव से बदला

राजा विक्रमादित्य के राज्य में सब कुछ सामान्य चल रहा था। वे न्यायपूर्ण शासक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे, लेकिन शनि देव का अपमान अब भी उनके मन में था। एक दिन शनि देव ने विक्रमादित्य से बदला लेने का निर्णय लिया।

शनि देव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत सारे घोड़े लेकर उज्जयिनी नगरी पहुंचे। राजा विक्रमादित्य को खबर मिली कि कोई घोड़े का व्यापारी आया है। राजा ने अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने भेजा। अश्वपाल जब वापस लौटकर आया, तो उसने बताया कि व्यापारी के पास बहुत अच्छे घोड़े हैं। राजा विक्रमादित्य ने खुद आकर एक शानदार घोड़ा पसंद किया और घोड़े पर सवार हो गए।

घोड़ा बड़ी तेजी से दौड़ा और राजा विक्रमादित्य को एक दूर जंगल में ले गया। वहां घोड़ा अचानक गायब हो गया और राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में फंस गए। राजा भटकते हुए एक चरवाहे के पास पहुंचे, जो उन्हें पानी देने आया।

राजा ने चरवाहे को अपनी अंगूठी दी और रास्ता पूछा। जब राजा जंगल से बाहर निकला, तो वह एक नगर में पहुंचा। वहां एक सेठ की दुकान पर बैठने के बाद, राजा ने सेठ से बातचीत की और उसे अपनी पहचान बताई। सेठ ने राजा विक्रमादित्य के बारे में सुनकर उसे अपने घर भोजन के लिए बुलाया।

सेठ के घर पर चुराई गई हार

सेठ के घर में एक कमरे में सोने का हार खूँटी पर लटका हुआ था। राजा जब उस कमरे में बैठा, तब अचानक वह हार खूँटी द्वारा निगल लिया गया। जब सेठ वापस आया और हार गायब पाया, तो उसे चोरी का संदेह राजा विक्रमादित्य पर हुआ। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि राजा को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो।

राजा विक्रमादित्य सेठ के साथ नगर के राजा के पास गए, और राजा ने विक्रमादित्य से पूछा कि हार कहाँ गया। राजा विक्रमादित्य ने कहा, “वह हार तो खूँटी ने निगल लिया था।” इस पर नगर के राजा ने क्रोधित होकर विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया।

राजा विक्रमादित्य को नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया। कुछ दिनों बाद एक तेली ने विक्रमादित्य को उठाया और अपने घर ले गया, जहां उसे अपने कोल्हू पर बैठाकर बैल हाँकने का काम दिया। विक्रमादित्य अब बैल को हाँकते हुए दिन बिताने लगे।

राजकुमारी मोहिनी का विवाह

वर्षों बाद, जब शनि देव का प्रकोप समाप्त होने वाला था और विक्रमादित्य की साढ़े साती पूरी होने वाली थी, तब एक दिन रात्रि को राजा विक्रमादित्य ने “मेघ मल्हार” गाना शुरू किया। राजा के गाने से राजकुमारी मोहिनी बहुत मोहित हो गई। उसने दासी भेजकर विक्रमादित्य को बुलवाया और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा।

राजकुमारी ने अपनी माता-पिता की नाराजगी के बावजूद विक्रमादित्य से विवाह करने का निर्णय लिया। विवाह के बाद, राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। एक रात स्वप्न में शनि देव ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “राजा! मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया, लेकिन अब तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ।

राजा विक्रमादित्य ने शनि देव से प्रार्थना की, “हे शनि देव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, कृपया अब किसी और को न दें।” शनि देव ने कहा, जो कोई शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी कृपा बनी रहेगी।

शनि देव की कृपा और राजा विक्रमादित्य का उद्धार

राजा विक्रमादित्य ने अपनी अंगुलियाँ देखकर पाया कि वे फिर से पूरी तरह स्वस्थ हो गए। राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी मोहिनी खुशी-खुशी उज्जयिनी लौटे। वहां के लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया।

राजा विक्रमादित्य ने घोषणा की कि “शनिदेव सबसे महान देवता हैं।” और आदेश दिया कि प्रत्येक व्यक्ति शनिवार को शनि देव का व्रत करे और उनकी व्रतकथा सुने।

उपसंहार

यह कथा हमें यह सिखाती है कि शनि देव व्रत से हमें उनके कुप्रभाव से मुक्ति मिल सकती है। यह कथा यह भी दिखाती है कि शनि देव का प्रकोप कभी-कभी हमारे जीवन में कठिनाई उत्पन्न करता है, लेकिन यदि हम श्रद्धा और विश्वास के साथ उनकी पूजा करते हैं, तो उनकी कृपा से हमें जीवन में शांति और सुख की प्राप्ति होती है।

Shani Vrat Katha

 विक्रमादित्य और शनि देव का अद्भुत संवाद

एक समय स्वर्गलोक में देवताओं और ग्रहों के बीच यह विवाद छिड़ गया था कि "हममें से सबसे बड़ा कौन है?" इस प्रश्न पर देवताओं के बीच भयंकर वाद-विवाद होने लगा, और विवाद इतना बढ़ा कि युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और उनका मार्गदर्शन मांगा।

देवराज इंद्र ने कहा, "मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। क्यों न हम सभी पृथ्वी पर चलकर उज्जयिनी नगरी के राजा विक्रमादित्य से पूछें?"

इंद्र और अन्य देवताओं का उज्जयिनी नगरी में आगमन 

इंद्र और अन्य देवता उज्जयिनी नगरी पहुँचे। वहां राजा विक्रमादित्य ने उनकी बात सुनी और स्थिति को संभालने के लिए सोचा। राजा विक्रमादित्य ने एक अनोखा उपाय निकाला। उन्होंने स्वर्ण, रजत, कांसा, ताम्र, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहे से नौ आसन तैयार किए और ग्रहों को इन पर बैठने के लिए कहा। प्रत्येक ग्रह को उसके अनुसार धातु पर बैठने को कहा गया।

राजा ने कहा, "जो सबसे पहले आसन पर बैठता है, वही सबसे बड़ा है।" अब सभी ग्रह अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। जब शनि देव ने सबसे पीछे बैठे आसन को देखा, तो वे क्रोधित हो गए और राजा विक्रमादित्य को चुनौती दी।

शनि देव का क्रोध और धमकी

शनि देव ने गुस्से में आकर कहा, राजा विक्रमादित्य! आपने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। क्या आप मेरी शक्तियों को नहीं समझते? मैं तुम्हारे सर्वनाश का कारण बन सकता हूँ।

शनि देव ने कहा, "सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूँ। मेरे प्रकोप से बड़े-बड़े देवता भी दुखी हो चुके हैं। राम ने मेरी साढ़े साती के कारण वनवास झेला और रावण को मेरी साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का सामना करना पड़ा। अब तुम भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकोगे।"

राजा विक्रमादित्य ने शनि देव के क्रोध को शांत करने की कोशिश की, लेकिन शनि देव उनके शब्दों को नजरअंदाज करते हुए वहां से क्रोधित होकर चले गए।

राजा विक्रमादित्य का संघर्ष और शनि देव से बदला

राजा विक्रमादित्य के राज्य में सब कुछ सामान्य चल रहा था। वे न्यायपूर्ण शासक के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे, लेकिन शनि देव का अपमान अब भी उनके मन में था। एक दिन शनि देव ने विक्रमादित्य से बदला लेने का निर्णय लिया।

शनि देव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत सारे घोड़े लेकर उज्जयिनी नगरी पहुंचे। राजा विक्रमादित्य को खबर मिली कि कोई घोड़े का व्यापारी आया है। राजा ने अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने भेजा। अश्वपाल जब वापस लौटकर आया, तो उसने बताया कि व्यापारी के पास बहुत अच्छे घोड़े हैं। राजा विक्रमादित्य ने खुद आकर एक शानदार घोड़ा पसंद किया और घोड़े पर सवार हो गए।

घोड़ा बड़ी तेजी से दौड़ा और राजा विक्रमादित्य को एक दूर जंगल में ले गया। वहां घोड़ा अचानक गायब हो गया और राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में फंस गए। राजा भटकते हुए एक चरवाहे के पास पहुंचे, जो उन्हें पानी देने आया।

राजा ने चरवाहे को अपनी अंगूठी दी और रास्ता पूछा। जब राजा जंगल से बाहर निकला, तो वह एक नगर में पहुंचा। वहां एक सेठ की दुकान पर बैठने के बाद, राजा ने सेठ से बातचीत की और उसे अपनी पहचान बताई। सेठ ने राजा विक्रमादित्य के बारे में सुनकर उसे अपने घर भोजन के लिए बुलाया।

सेठ के घर पर चुराई गई हार

सेठ के घर में एक कमरे में सोने का हार खूँटी पर लटका हुआ था। राजा जब उस कमरे में बैठा, तब अचानक वह हार खूँटी द्वारा निगल लिया गया। जब सेठ वापस आया और हार गायब पाया, तो उसे चोरी का संदेह राजा विक्रमादित्य पर हुआ। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि राजा को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो।

राजा विक्रमादित्य सेठ के साथ नगर के राजा के पास गए, और राजा ने विक्रमादित्य से पूछा कि हार कहाँ गया। राजा विक्रमादित्य ने कहा, "वह हार तो खूँटी ने निगल लिया था।" इस पर नगर के राजा ने क्रोधित होकर विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया।

राजा विक्रमादित्य को नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया। कुछ दिनों बाद एक तेली ने विक्रमादित्य को उठाया और अपने घर ले गया, जहां उसे अपने कोल्हू पर बैठाकर बैल हाँकने का काम दिया। विक्रमादित्य अब बैल को हाँकते हुए दिन बिताने लगे।

राजकुमारी मोहिनी का विवाह

वर्षों बाद, जब शनि देव का प्रकोप समाप्त होने वाला था और विक्रमादित्य की साढ़े साती पूरी होने वाली थी, तब एक दिन रात्रि को राजा विक्रमादित्य ने "मेघ मल्हार" गाना शुरू किया। राजा के गाने से राजकुमारी मोहिनी बहुत मोहित हो गई। उसने दासी भेजकर विक्रमादित्य को बुलवाया और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा।

राजकुमारी ने अपनी माता-पिता की नाराजगी के बावजूद विक्रमादित्य से विवाह करने का निर्णय लिया। विवाह के बाद, राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। एक रात स्वप्न में शनि देव ने राजा विक्रमादित्य से कहा, "राजा! मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया, लेकिन अब तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ।"

राजा विक्रमादित्य ने शनि देव से प्रार्थना की, "हे शनि देव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, कृपया अब किसी और को न दें।" शनि देव ने कहा, जो कोई शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी कृपा बनी रहेगी।

शनि देव की कृपा और राजा विक्रमादित्य का उद्धार

राजा विक्रमादित्य ने अपनी अंगुलियाँ देखकर पाया कि वे फिर से पूरी तरह स्वस्थ हो गए। राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी मोहिनी खुशी-खुशी उज्जयिनी लौटे। वहां के लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया।

राजा विक्रमादित्य ने घोषणा की कि "शनिदेव सबसे महान देवता हैं।" और आदेश दिया कि प्रत्येक व्यक्ति शनिवार को शनि देव का व्रत करे और उनकी व्रतकथा सुने।

उपसंहार

यह कथा हमें यह सिखाती है कि शनि देव व्रत से हमें उनके कुप्रभाव से मुक्ति मिल सकती है। यह कथा यह भी दिखाती है कि शनि देव का प्रकोप कभी-कभी हमारे जीवन में कठिनाई उत्पन्न करता है, लेकिन यदि हम श्रद्धा और विश्वास के साथ उनकी पूजा करते हैं, तो उनकी कृपा से हमें जीवन में शांति और सुख की प्राप्ति होती है।

Shani Vrat Katha न केवल एक पौराणिक कथा है, बल्कि यह उस गूढ़ आध्यात्मिक अनुभव का भी प्रतीक है जो शनि देव की कृपा और उनके प्रकोप दोनों को दर्शाता है। इस कथा को शनिवार के दिन श्रद्धा और नियम से सुनने से जीवन में शांति, सफलता और बाधाओं से मुक्ति प्राप्त होती है।

यदि आप शनि देव की पूजा विधि, शनिवार व्रत के नियम, या शनि साढ़ेसाती से बचने के उपाय जैसे विषयों को भी विस्तार से जानना चाहते हैं, तो हमारे अन्य लेख भी ज़रूर पढ़ें।

FAQ

शनि व्रत किस दिन किया जाता है?

शनि व्रत हर शनिवार के दिन किया जाता है। खासतौर पर शनि अमावस्या या शनि जयंती पर इसका विशेष महत्व होता है।

शनि व्रत कथा कब और कैसे सुनी जाती है?

क्या कथा पढ़ना और सुनना दोनों जरूरी है?

कथा कितने शनिवार करनी चाहिए?

इस व्रत कथा से क्या लाभ मिलता है?

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